निर्णय “
विजया की जिंदगी अचानक ही एक अप्रत्याशित मोड़ पर आकर खड़ी हो गई थी ।हृदय आघात से पति की असामयिक मृत्यु से हंसती खेलती जिंदगी पल में उजड़ गई ।एक माह हो गया दिवंगत आत्मा के मरण संस्कार की सभी विधियाँ पूरी हुई ।रिश्तेदार अपने अपने घर लौट रहे हैं।पति केदार की मृत्यु क्या हुई विजया को सभी बैचारगी भरी नजरों से देखने लगे ।रिशतेदारों के बीच सुबह शाम बस एक ही काना फूसी रहती ।हाय राम ! अब विजया और उसकी बेटी का क्या होगा ।भाई भाभी और जेठ जिठानी ने जाते जाते अफसोस जताते हुए कहा “हमें अफसोस है केदार तुझे छोड़ कर चला गया तू कैसे जीयेगी हमें चिंता रहेगी पहाड़ सी जिंदगी कैसे गुजरेगी”सहानुभूति के लब्जों से सहला कर चले गए ।बेचारी का तमगा पहना कर चले गए ।
एक माह बाद घर से निकली तो आसपड़ौस वाले उसे सहानुभूति भरी नजरों से देखने लगे ।दबी जुबान से सब बस यही कहते बेचारी का क्या होगा ।विजया अपने प्रति दिखाये जाने वाले इस बेचारे भाव से खिन्न हो गई ।कोई तो हो जो उसे हिम्मत दिलाये और कहे विजया जीवन संघर्ष है । तुझे हिम्मत से लड़ना है ।तेरी परीक्षा की घड़ियां शुरू हो गई हैं ।चुनौती पूर्वपूर्वक सामना करना है ।तू कर सकती है ।उसे कोई हिम्मत क्यों नहीं दिलाता ।देखते ही क्यों मायूसी भरे चेहरे बना लेते हैं ।वह इस मायूसी भरे माहौल से दूर चले जाना चाहती है ।जहाँ कोई उसे सहानुभूति भरी नजरों से न देखे।अपनी बेटी को खुशनुमा माहौल देना चाहती है ।उसने निश्चय कर लिया कि वह इस शहर को छोड़ कर चली जायेगी।
उसकी बेटी आठवीं कक्षा में पढ रही थी।उसने अपनी बेटी को अपने निर्णय के बारे में बताया ।बेटी को अपने मित्रों से बिछुड़ने का गम था।उसने पूछा क्यों माँ हम दूसरे शहर जा रहे हैं ।बेटी इस शहर में हमें हमेशा तुम्हारे पापा की याद सताती रहेगी ।तुम्हारे पापा के मित्र आसपड़ौस सभी हमेशा पापा की याद दिला कर सहानुभूति दिखायेगें दूसरे शहर में लोग हमें हमारे आज में स्वीकार कर लेंगे ।ठीक है माँ मैं वहाँ नये दोस्त बना लूंगी।
विजया की शादी कालेज पास करते ही हो गई थी । उसके पापा ने अपने ही बैंक सहकर्मी के बेटे केदार को उसके लिए पसंद कर लिया था ।केदार देखने आया और दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया ।केदार ने उसी साल बैंक के जाॅब के लिए परीक्षा दी थी। वह पास हो गया और धूमधाम से शादी हो गई ।दो साल बाद बेटी अनन्या आ गई ।वह पांच साल की हुई ।स्कूल जाने लगी ।विजया ने एम ए करने की सोची और हिंदी से एम ए हेतु प्रवेश ले लिया ।एम ए करने के बाद टीचर के लिए ऑफर भी मिलने लगे ।किंतु उसने सोचा अनन्या थोड़ी और बड़ी हो जाये तब जाॅइन करेगी ।अब समय आ गया था ।उसने स्कूलों में वेकेन्सी देखना शुरू कर दिया ।किस्मत से उसे पुणे के लड़कियों के स्कूल में टीचर कम वार्डन की जगह मिल गई ।रहने के लिए कैम्पस में घर था।उसने तुरंत अपना सामान पैक किया और सुबह सबेरे नये सफर के लिए निकल पड़ी ।जहाँ वह अपने आज में और नये स्वरूप में जी सके।।
ड़ा मीरा रामनिवास

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” गांधारी ”

गांधारी तुम्हें आंखों पर
पट्टी बाँध कर
क्या मिला
पति के अंधेरे का हिस्सा
बनने के अलावा
क्या मिला
पति को उजाले में
लाने की वजाय
खुद अंधेरे में बैठ गई
पति की आंखें बनने के वजाय
खुद भी अंधी बन गई
काश तुमने अपनी दृष्टि का
उपयोग किया होता
काश तुमने अपने होने का
एहसास किया होता
अपने पति की आंखें बन
सच का सामना किया होता
खुली आँखों से
पति धर्म निभाया होता
बच्चों के चेहरों के
भावों को पढ़ा होता
पति के चेहरे पर छाये
मात्सर्य को देखा होता
तुम्हारे इस निर्णय से
बच्चे अंधकार में खो गये
माँ बाप के अंधेपन से
बच्चे अधूरे रह गये
काश तुमने उनकी आँखों में
झांक कर देखा होता
उन्हें उंगली पकड़
चलना सिखाया होता
काश दुर्योधन के क्रिया कलापों को
देख पातीं
काश उसे शकुनि मामा की
परवरिश से बचा पातीं
काश कि तुम देख पातीं
चीरहरण के बाद
द्रोपदी के आक्रोश को
पीड़ा से संतप्त
एक नारी के मन को
माँ बच्चों की प्रथम गुरु होती है
बच्चों को आंखों से
बहुत कुछ सिखा देती है
तुम बच्चों को बढ़ते न देख पाई
तुम बच्चों का व्यक्तित्व न गढ़ पाईं
न तुम झांक पाईं उनमें
न वो झांक पाये तुम में
माँ बाप के संरक्षण बिन बच्चे
दुर्योधन बन सकते हैं
बच्चों को अकेले न छोड़ो
अधूरे रह जाते हैं
खैर तुमने तो बांधी थी पट्टी
जान बूझकर
कुछ माँ बाप अंधे बने रहते
आंखें खुली रख कर
या तो बच्चों की हरकतों पर
पर्दा डालते रहते हैं
या बच्चों के मनोभावों को
दरकिनार करते हैं
बच्चों से संवाद नहीं करते
बच्चों के मित्र नहीं बनते
बच्चों को अकेला छोड़ देते हैं
बच्चे राह से भटक जाते हैं
अंततः ऐसे माता पिता को
गांधारी धृतराष्ट्र की ही तरह
रोना पड़ता है
बच्चों को गँवा कर
अंततः पछताना पड़ता है ।।

ड़ा मीरा रामनिवास

“बंटवारा”

“बंटवारा ”

जमीन बांट ली
दुकान बांट ली
मकान बांट लिया
गहना बांट लिया
माँ बाप बांट लिए
रिश्तेदार बांट लिए
पिता तेरे माँ मेरी
एक बहन तेरी
एक बहन मेरी
दो बुआ तेरी
दो बुआ मेरी
लोभ के इस बंटवारे ने
पिता का दिल तोड़ दिया
पिता ने गम में जग छोड़ दिया
उस रात ऐसे सोये कि
सुबह ही नहीं हुई
माँ अकेली रह गई
माँ उलाहना दे रही है
बिना कुछ कहे चले गए
मुझे साथ क्यों ना ले गये
अब माँ बची थी
माँ को महीनों में बांट लिया
छः महीने मेरी
छः महीने तेरी
जिस घर बीमार होगी
इलाज वही करायेगा
माँ सोच रही है
मैंने दोनों का लालन पालन किया
बीमारी में रात रात भर
सिहराने बैठ कर
दवा के साथ वात्सल्य दिया
लोभ ने इतना अंधा कर दिया
सब भूल गए
बचपन भूल गए
मुझे पराया कर दिया
मेरा बंटवारा कर दिया ।।

अकेलापन

” अकेलापन ”

बढ़ने लगती है जब खामोशी
काटने लगता है अकेलापन
अपने आप से बतिया लेती हूँ
सुषुप्त हुईं इच्छाओं को
फिर से जगा लेती हूँ
घर से निकलती हूँ
सूरज को उगते देखती हूँ
पंछियों की चहचहाट सुनती हूँ
सुबह की सैर से
तरोताजा हो जाती हूँ
रहता है दिल जब गुमसुम
सताता जब कोई गम
गीत गुनगुना कर
दिल को बहलाती हूँ
घर में चहल पहल के लिए
अपनों को बुला लेती हूँ
कोई कुंडी न खटखटाये
तो खुद ही आवाज लगा लेती हूँ
देर तक बतिया लेती हूँ
कातर नजरों से देखती है
टेबल पर रखी ड़ायरी
पास बुलाती है
अरसे से अनछुई ड़ायरी
उसे उलट लेती हूँ
कुछ पुराने पन्ने पढ़ लेती हूँ
कुछ नये पन्ने लिख लेती हू
पतझड़ की मार से
आंगन में खड़ा दरख्त बेरौनक है
पंछियों बिन
उदास है अकेला है
उसके के पास तनिक बैठ जाती हूँ
उसके साथ बतियाती हूँ
अकेलापन दूर भगा लेती हूँ ।

ड़ा मीरा रामनिवास वर्मा

क्यों?

क्यों ?
क्यों बिछा दी हमने
जाति और धर्म की
बिसातें
व्यक्ति व्यक्ति के बीच
क्यों खींच दी ऊंच नीच की
दीवारें
एक दूसरे के बीच
लहू सबका लाल है
लहू का कोई जाति धर्म नहीं होता
सबके भीतर
नन्हा सा दिल धड़कता है
धड़कनों का कोई जाति धर्म नहीं होता
भूख प्यास सबको सताती है
भूख प्यास का कोई जाति धर्म नहीं होता
सूरज चांद सब के लिए उगते हैं
सूरज चांद का कोई जाति धर्म नहीं होता
हवा पानी सबके लिए बहते हैं
हवा पानी का कोई जाति धर्म नहीं होता
धरा गगन सबके लिए टिके हैं
धरा गगन का कोई जाति धर्म नहीं होता
दुख में आंखें रोती हैं
सुख में मुस्कुराती हैं
आंसू व मुस्कान का
कोई जाति धर्म नहीं होता
पंच तत्व की सबकी देह
पंच भूत में समा जाती है
मृत्यु का कोई जाति धर्म
नहीं होता
फिर क्यों हम सब
मानव धर्म भूल कर
जाति धर्मों में बंट रहे हैं
भेदभाव और अलगाव के
बीज बो रहे हैं
ये कैसी फसल
अगली पीढ़ी को
दिए जा रहे हैं ।

ड़ा मीरा रामनिवास

“चिंतन का केन्द्र बिंदु “

“चिंतन का केन्द्र बिंदु ”

बेटी के जन्म के साथ ही
अनेक चिंताएँ
जन्म ले लेती हैं
जैसे जैसे बढ़ती हैं बेटियाँ
चिंताएँ भी बढ़ती जाती हैं
बेटी जल्दी जल्दी बढ़े
ये भी अच्छा लगता है
बड़ी दिखने लगे तो
अंजान भय लगता है
स्कूल कालेज से
घर पहुँचने में
तनिक भी देरी हो जाये
उसकी सुरक्षा की
चिंता होने लगती है
बाहर खेलने निकले
मन आशंकित हो उठता है
जब तक घर न आ जाए बेटी
मन दरवाजे पर टंगे रहता है
सोलहवॉं सावन लगते ही
घर वर की चिंता सताने लगती है
अच्छा घर वर पाने के लिए
सोमवार का व्रत करती है
शादी की शहनाई बजती है
आंगन खुशी से झूम उठता है
विदाई के वक्त
कलेजा फटने लगता है
शादी के साथ ही
अनेकानेक
चिंताओं का सिलसिला
शुरू हो जाता है
ससुराल में वह
सबसे घुल मिल गई होगी या नहीं
पति का प्यार ,सास का दुलार
पा रही होगा या नहीं
कैसी होगी कब आयेगी
अनेकानेक सवाल
मन में उठते हैं व्यथित करते हैं
घर आंगन ,वार त्योहार
बेटी की याद दिलाते हैं
बेटी सदैव चिंतन का
केंद्र बनी रहती है
चाहे जितनी भी दूर रहे बेटी
सदा दिल के करीब रहती है ।।

ड़ा मीरारामनिवास

” क्यों आज में वो बात नहीं “

“क्यों आज में वो बात नहीं ”

चांद वही रात भी वही
फिर क्यों चांद में वो कशिश नहीं
तारे वही चांदनी भी वही
फिर क्यों चांदनी में शीतलता नहीं
धरा वही गगन भी वही
फिर क्यों प्रकृति में सुंदरता नहीं
गुल वही गुलशन भी वही
फिर क्यों आंखों को भाते नहीं
पंछी वही कलरव भी वही
फिर क्यों कानों को सुहाते नहीं
शीतल मंद पवन भी वही
फिर क्यों स्पर्श सुखद नहीं
रिश्ते भी वही रिशतेदार भी वही
फिर क्यों पहले सी मिठास नहीं
सब कुछ वही मैं भी वही
फिर क्यों मुझ में वो बात नहीं
धरा वही सूरज भी वही
फिर क्यों आज में वो बात नहीं
शायद आज मैं खुश नहीं ।।

ड़ा मीरा रामनिवास

“आत्म निरीक्षण “

“आत्म निरीक्षण ”

अपनी निर्बलता के प्रति
जागरूक होना
सबके बस की बात नहीं
खुद का खुद में झांकने की
सब में हिम्मत होती नहीं
आत्म निरीक्षण के लिए
एक खास जिगर की जरूरत होती है
अहम् को भुलाने की जरूरत होती है
इंसान गलतियों का पुतला है
दूसरों की आलोचना
आसानी से कर लेता है
अपनी निर्बलता को
नजर अंदाज कर लेता है
दूसरों के दोष देखना
दूसरों की निंदा करना
अच्छी आदत नहीं
कोई फायदा भी नहीं
गुण दोष खुद के देखें
खुद से खुद की बात करें
तो जान पायेगें
हम क्या हैं कैसे हैं
स्व मूल्यांकन के लिए
निष्पक्षता तटस्थता जरूरी है
अपनी खामियों को समझना जरूरी है
परदोष दर्शन आत्म विकार है
स्वदोष दर्शन आत्म विकास है।
महान बनाता हैं आत्मनिरीक्षण
परम आनंद हैआत्म परीक्षण
परनिंदा तो ईर्ष्या की गहरी खाई है
इससे बच कर चलना ही भलाई है
मन के अंदर झांकना है
अपना शिव रूप ढूंढना है
स्व परीक्षण वो साबुन है
जो मन का मैल धो देता है
आत्मनिरीक्षण से चरित्र संवरता है
मन वचन कर्म परिष्कृत होता है
परिस्कार की वृत्ति मंगलकारी है
अपने दोष देखना ही हितकारी है।।

ड़ा मीरा रामनिवास

” मैना की व्याकुलता “

” मैना की व्याकुलता ”

दो मैना एक दूजे से
उलझ रही हैं
अपनी व्याकुलता
एक दूजे पे ठेल रही हैं ।
इन्हें भी मानव का
संवेदनहीन हो जाना
अन्याय के खिलाफ
आवाज न उठाना
बड़ अखरता है
आखिर क्यों मानव
सब देख सुन कर भी
चुप रहने लगा है
क्यों न्याय के साथ
खड़ा नहीं रहता है
काश हम ही कुछ कह पातीं
अन्याय के खिलाफ
आवाज उठा पातीं
प्राचीन समय में हम भी
बोल लेती थीं मानव की भाषा
कर लिया करती थीं
मानव से बातें
लोक कथा सुना कर
राजा प्रजा दोनों को
अच्छे बुरे की सीख
दिया करती थी
जंगल से गुजरते राही को
लुटेरों से सचेत किया करती थीं
तोता मैना संवाद
इसका साक्षी है
राजा जब कभी
भेष बदल कर
निकला करता था
तोता मैना संवाद
और
किसी गरीब की झोपड़ी से
सुनाई देते वार्तालाप से
प्रजा के कष्ट जाना करता था
अगले दिन
दरबार लगता  था
राजा सुनवाई करता था
अब प्रजा और शासन के बीच
ऐसी व्यवस्था कहाँ
आम जन की  पीड़ा की
अब परवाह ही कहाँ
लोग अब पहले से नहीं रहे
एक दूजे से पहले से
सरोकार नहीं रहे
संवाद और संवेदना दोनों गुम हैं
मैना अब बोल नहीं पाती
कहना चाहती हैं बहुत कुछ
पर कह नहीं पाती
व्यथित रहती है
एक दूजे से उलझती है ।।

ड़ा मीरा रामनिवास